ISBN : 978-81-19281-43-5
Category : Non Fiction
Catalogue : Poetry
ID : SB20581
Paperback
170.00
e Book
99.00
Pages : 76
Language : Hindi
मेरी कलम से............. इन्सानी जज्बात हालातो के चक्की में पीस- पीसकर ऐसे रुबरु हो जाते है कि यूँ लगता है जैसे कई परते गिरती जा रही है और कई परते खुलती जा रही है जिसका हमे अंदाजा तक नहीं की यह जो घटनाएँ घटित हो रही है वह वास्तविक स्वरूप में है या काल्पनिक कहानी । जिस इन्सानी दर्द, शोक, यातना, वेदना, लाचारी, उदासी, बेबसी,गमजदा चीखो को हम महसूस तो करते हैं लेकिन जहाँ चरमराती व्यवस्था, अन्याय, अत्याचार, महंगाई, बेरोजगारी ,जाती अन्तर्गत कलह, जनता के घटते अधिकार, सत्य का चीरहरण, इंसानियत और नैतिकता के घटते मूल्य, धर्मांधता, साक्षरता की अज्ञान पुर्वक सोच, हैवानियात के फैलते कारोबार के बदहवासी की बदबू चारो और फैली हुई हो वहाँ सन्नाटो के शोर और लाशो के अम्बार के सिवाय और कुछ भी सुनाई और दिखाई नहीं देता। ' जिस्म को सहलाने वाले जिस्म को नोच खायेंगे इन दरिन्दो से बचके रहना यह गोश्त क्या ईमान भी बेच खायेंगे ' हम कहाँ जाये किसे सुनाए अपनी दास्ता जो नुकीली काँटो की छाया मे पनप भी रही हैं और दम भी तोड रही है ।ऐसे लगता है जैसे इन्सानो के जेहन पर ताले जड़े हुए है....अक्ल ने सोचने समझने की शक्ती जैसे खत्म कर दी है...... एक अजीब सी बेचैनी, झुंझलाहट पैदा हो गयी है । कहना तो चाहते हैं पर कह नही सकते, बोलना चाहते हैं पर बोल नही सकते, अपने ही घरो मे जैसे नजरकैद होकर फडफडाते पंछी की तरह लाचारगी का बोझ कन्धो पर लादकर चल रहे है जैसे किसी अजनबी शहर मे बशर चलते हैं। ऐसे मे याद आती है दुष्यंत कुमार चंद पँक्तियाँ ' आपके कालीन देखेंगे किसी दिन इससमय तो पांव कीचड़ मे सने हैं ' यूं लगता है कभी कभी रगो मे बहता लहू इतना ठंडा हो गया है की उसने जीवन की हलचल ही बंद कर दी है । डरा सहमा हर पत्ता पत्ता अपनी वास्तविक हरियाली को तरस रहा है, वह खोज रहा है अपनी खुशबुओं को ,अपनी जड़ो को, जो रोयें रोयें में बसकर इतराता रहता था कभी गली नुक्कड़ मे, कभी चौराहे पर , कभी चाय के बागानो में तो कभी बस्तियो की चौखट पर.......... कचनार नज्मो का एहसास सुबह की ताजगी भरी पुरवाई की झलक भर है....... जो अभी पकी नही है वक्त की आँच पर उम्र की तरह। कच