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किस्सा छोटी ख़ुशी का

किस्सा छोटी ख़ुशी का

अक्सर हम बड़ी खुशियों के इंतजार में छोटी छोटी खुशियों को नजरअंदाज करते चले जाते है और अंत में हमारे पास बचती है तो बस कभी न ख़त्म होने वाली उदासी मायूसी और अकेलापन :(

एक दिन बैठा था यूँ ही
कर रहा था तयारी ,कई दिनों से एक बड़ी ख़ुशी का इंतज़ार था
सोच रहा था ,क्या क्या करूंगा जब वो आएगी,
नाचूँगा, गाऊंगा खूब धूम मचाऊंगा
फिर अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई
मैंने पूछा कौन है
वो बोली ख़ुशी, हूँ में
हाँ थोड़ी छोटी हूँ, वो नहीं जिसकी राह तुम ताक रहे हो
पर हु ख़ुशी ही, अंदर आ जाऊं?
मै बोला रुको ज़रा, कुछ काम खत्म कर लूँ
उस बड़ी ख़ुशी के आने का इंतज़ाम कर लूँ
फिर मैं इतना मसरूफ हो गया की उसे भूल ही गया
उसने फिर दस्तक दी
बोली, दहलीज़ तो पार करवा दो चाहे घर में जगह न देना
अंदर तो आने दो चाहे स्वीकार न करना
मै खीज कर बोला, यार तुम परेशान बहुत करती हो , तुम बाद में आना
बड़ी ख़ुशी के स्वागत में पकवान बनाने हैं
बहुत काम अभी बाकी हैं
कई इंतज़ाम अभी बाकी हैं
छोटी ख़ुशी बोली, में तो रोज़ आती हूँ, दिन में कई बार ,तुम ही दरवाज़ा नहीं खोलते
अब नहीं आऊँगी, कहकर वो पैर पटकते हुए बच्चो के जैसे चली गई
कई बरस बीत गए , बड़ी ख़ुशी नहीं आई
पकवान खराब हो गए, दीवारों का रंग फीका पड़ गए
दिल जैसे तरस गया उसके इंतज़ार में
पर बड़ी ख़ुशी नहीं आई
एक दिन सपनो में मिला उस बड़ी ख़ुशी से
तो पूछा, तुम मेरे घर क्यों नहीं आई
मैंने खूब तयारी की थी तुम्हारे आने की
पकवान बनाये, सपने बुने, घर सजाये
वह बोली – अरे तुमने पहचाना नहीं ,आई थी, कई बार आई थी पर तब मेरा कद शायद छोटा था.
तुमने आने नहीं दिया, पर किसी और ने खुली बाहों से अपनाया
देखो आज कितनी बड़ी हो गई हूँ
ये सुनते ही मै पसीने पसीने होकर उठ बैठा, भाग कर दरवाज़ा खोला पर कोई नहीं था
आज मेरा दिल और दरवाज़ा दोनों खुले हैं
पर कोई दस्तक नहीं करता , कोई देहलीज़ पार करने की ज़िद नहीं करता
कोई दस्तक नहीं करता


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